small state vs large state india- भारत में यदा कदा नए राज्यों को बनाने की मांग क्षेत्र विशेष में हावी कुछ स्वायत संघठनो और किसी क्षेत्र विशेष में प्रभावी विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा उठती रही है लेकिन सवाल ये उठता है हमेशा कि छोटे राज्यों का गठन भारतीय गणराज्य की शासन प्रणाली पर क्या सवाल करता है और क्या जिन औद्योगिक विकास और इसकी गति को आधार बनाकर मुद्दे को राजनीतिक बल दिया जाता है
इसकी क्या सुनिश्चितता है कि वांछित राज्य को बना दिए जाने के बाद वो हासिल किया जा सकेगा जबकि इसके पक्ष और विपक्ष में जानकारों के अपने दोनों तरह के तर्क है जिनमे से कुछ आशंकित अस्थिरता की और हमारा ध्यान दिलाते है जबकि कुछ राज्य के विकास-कार्यों और औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए इसे जरुरी समझे जाने का समर्थन करते है ।
लाइव हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार अपने लेख में हमारा ध्यान छोटे राज्यों के गठन और उस से जुड़े संभावित सुरक्षा संबंधी खतरों की और दिलाते है कि किस तरह छोटे राज्यों का गठन देश की सुरक्षा व्यवस्था को प्रभावित करता है :–
“तेलंगाना राज्य के गठन के प्रस्ताव पर जो आशंकाएं जताई जा रही थी उनमें एक यह भी कि नए राज्य में नक्सली उग्रवाद सिर उठा सकता है। यह चिंता इस वजह से भी उभरी है कि अब पुलिस को कई दूसरी चीजों की ओर भी ध्यान देना होगा, साथ ही पुलिस के संसाधनों व प्रशिक्षण में भी कमी आएगी। कुछ लोगों का यह तर्क भी है कि सामान्यत: छोटे राज्य देश की आंतरिक सुरक्षा के नजरिये से हानिकारक होते हैं। इन लोगों का कहना है कि छोटे राज्यों में राजनीतिक अवसरवाद बढ़ता है, इसके कारण प्रशासन में भी ढीलापन आता है। छोटे राज्य जनता के धन से क्षेत्रीय उन्माद ही फैलाते हैं। ऐसा सोचने वाले दरअसल कोशिशों के मुकाबले भ्रम पर ज्यादा ध्यान देते हैं। और जब भ्रम की बात आई है तो मैं यह बता दूं कि मेरे अंदर इस बात का जरा भी भ्रम नहीं है कि भारतीय गणराज्य का शासन प्रशासन बहुत अच्छी तरह चल रहा है। और जहां तक भ्रम की बात है तो यह उन पर भी समान रूप से लागू होता है, जो यह मानते हैं कि छोटे राज्य भारत की स्थिरता के लिए मुफीद हैं।
असलियत तो यह है कि आंतरिक सुरक्षा के मामले में कुछ भी अंतिम सत्य नहीं होता है। इसका अपवाद शायद योजना आयोग के विशेषज्ञ समूह की वह रिपोर्ट है, जिसका शीर्षक है- डेवलपमेंट चैलेंजेज इन एक्सट्रीमिस्ट एफेक्टेड एरियाज। आम तौर पर भुला दी गई यह रिपोर्ट 2008 में आई थी। यह उग्रवादी इलाकों में सामान्य समझ-बूझ से मुश्किलें हल करने के तरीकों की बात करती है। यह रिपोर्ट प्रभावित इलाकों को हथियारबंद सक्रियता का ऐसा शेषित क्षेत्र मानती हैं जहां स्थानीय समुदाय के अंदर सुरक्षा और न्याय का एक भ्रम पैदा किया जाता है। इस रिपोर्ट का कहना है कि अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक विज्ञानियों और सुरक्षा विशेषज्ञों ने अब तक सुधार के जो मूल कदम उठाने के सिफारिशें की हैं हमें पहले उन पर ध्यान देना होगा। ये कदम हैं- ‘सरकार में लोगों का भरोसा बहाल करना, इस बात की सतत निगरानी करना कि लोगों की आकांक्षाएं पूरी हो रही हैं या नहीं, प्रभावी सुरक्षा, सामाजिक सेवा समेत आदिवासी अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करना, सतत विकास.., समग्र योजना.. और टकराव को खत्म करने के लिए मध्यस्थता की रणनीति पर ध्यान देना।’ स्थानीयता के आधार पर छोटे बदलावों के साथ इस समझ को पूरे देश में आसानी से अपनाया जा सकता है।
भले ही कल के तेलंगाना में वामपंथी उग्रवाद सिर उठाने लगे या आदिवासियों, या जातियों, या आर्थिक बाधा से जुड़े मुद्दे लोगों की नाराजगी की वजह बनें, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दा तो यही रहेगा कि राज्य को सुचारु तरीके से चलाया जा रहा है या नहीं। इसे छत्तीसगढ़ और झारखंड के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। मौजूदा छत्तीसगढ़ के इलाकों के प्रति अविभाजित मध्य प्रदेश का बर्ताव राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर तिरस्कार भरा था। साथ ही, खनिज और वन-संपदा के दोहन को लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश ने कभी कोई अफसोस नहीं जताया। अविभाजित बिहार ने भी आज के झारखंड के साथ तब यही सब किया था। ऐसी निष्ठुरता गरीबी और कुव्यवस्था लाती है, इसे बढ़ाती है और ऐसे क्षेत्रों में माओवादी विद्रोह को भी जगह देती है। लेकिन जैसे ही छत्तीसगढ़ बना, शहरी क्षेत्रों में समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पूरी जांच व मरम्मत हुई। विद्रोहियों कड़ी चुनौती मिलने लगी और असुरक्षित क्षेत्रों में राजनीतिक व प्रशासनिक उदासीनता का स्तर भी घटा। झारखंड को राजनीतिक भ्रष्टाचार की बीमारी और उदासीनता मूल रूप से बिहार से ही मिली थी। झारखंड के एक करोड़पति मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को भारी-भरकम भ्रष्टाचार के मामले में जेल तक जाना पड़ा। भ्रष्टाचार और मनमाने तरीके से किए गए फैसलों ने इस राज्य में विकास-कार्यों और औद्योगीकरण को जबर्दस्त क्षति पहुंचाई और इन सबसे एक नकारात्मक माहौल बना।
अब महाराष्ट्र के सामने राज्य के पूर्वी क्षेत्र विदर्भ की चुनौती सिर उठा रही है । उत्तराखंड पहले ही अलग हो गया था, अब उत्तर प्रदेश के और टुकड़े करने की मांग होने लगी है। पश्चिम बंगाल को काटकर गोरखालैंड बनाने की मांग तेज होती जा रही है। हालांकि, कुछ लोग यह मान रहे हैं कि दाजिर्लिंग गोरखा हिल कौंसिल और 2011 से गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन द्वारा इस इलाके का कार्यभार संभाले जाने से पहले के मुकाबले यहां स्थिति सुधरी है। इसके साथ ही बोडोलैंड की भी मांग तेज हो चुकी है। कार्बी व दिमासा जनजातियों के लोगों के लिए स्वायत्त क्षेत्रों की मांग जोर पकड़ती नजर आ रही है। बावजूद इसके कि इन क्षेत्रों को स्थानीय स्वायत्त संगठन चलाते हैं, लेकिन उनका तरीका असम के नक्शे-कदम पर होता है। यहां हर कदम पर गरीबी और पुराने किस्म के जनजातीय वैमनस्य दिखाई देते हैं।
मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा, अगर आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर को तीन भागों में बांटने का पुराना मुद्दा फिर से जोड़ पकड़ने लगे। 2002 के राज्य विधानसभा चुनावों में इसे कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख में बांटने की मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य दलों ने की थी। इसके अलावा, मेघालय में गारो, खासी और जैंनतिया हिल की स्वायत्त जिला परिषदें अधिक स्वायत्तता की मांग कर सकती हैं। कुछ विद्वान लोगों का तर्क यह है कि अगले 25-30 वर्षो में भारत में 50 या इससे अधिक राज्य होने का अनुमान है। इसी तरह जिलों की तादाद 1000 के आसपास होगी, जो फिलहाल 650 से कुछ अधिक है। मैं इसमें कई या संभवत: कई दजर्न नई स्वायत्त परिषदों को भी शामिल करता हूं। क्या यह सब एक मजबूत या अपेक्षाकृत कमजोर भारत का निर्माण करेंगे, या फिर एक सुरक्षित या असुरक्षित भारत का? यह तो इस पर निर्भर करेगा कि कैसे बड़े, छोटे और सबसे छोटे प्रदेशों की सरकारें जनता की आकांक्षाओं व उनके लिए विकास-कार्यों का प्रबंधन करती हैं और उनके अनुरूप व्यवस्था चलाती हैं। ”
जबकि कुछ लोग छोटे राज्यों के गठन को भारत के लिए समय की जरुरत भी मानते है उनका तर्क है कि इस से प्रशासन व्यवस्था में सुधार आएगा और एक बड़ी बीमारी भ्र्ष्टाचार को भी कम करने में कुछ हद तक आसानी हो जाएगी जबकि वंही इसके पक्ष में डॉ सुभाष कश्यप जो कि सवैंधानिक मामलो के विशेषज्ञ है वो और उनकी रिपोर्ट छोटे राज्यों के गठन के समर्थन में पक्ष रखती है उनका कहना है कि “नये राज्यों की न तो मांग में बुराई है और न ही इसके बनने में. सवाल सदाशयता का है. इस बात का कि आप चाहते क्या हैं? अगर नये राज्य का आंदोलन व्यक्ति विशेष की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए हो रहा हो? केवल इसलिए हो रहा हो कि इससे कुछ लोगों को मंत्री पद हासिल हो जाएगा और अन्य विभिन्न प्रकार के नये पदों का सृजन होगा तो इसे केंद्र-राज्य सम्बंध से लेकर जनता के सर्वांगीण विकास तक के लिए हानिकारक माना जाना चाहिए. इससे उलट, अगर इरादे अच्छे हों तो लोकतंत्र को मजबूत करने में छोटे राज्य कहीं अधिक मददगार हो सकते हैं. समस्या यह है कि इधर के दौर में जो मांगें उठी हैं उसमें राजनीतिक रोटी सेंके जाने की मंशा अधिक दिखती है.
लोकतंत्र के हिसाब से देखा जाये तो राज्य की इकाई अगर छोटी होगी तो वह जनता के अधिक निकट होगी. सिद्धांतत: भारत जैसे देश में 40-50 राज्य भी हों तो कोई बुराई नहीं है. राहुल सांस्कृत्यायन ने कभी 49 राज्यों के गठन की बात की थी. इतने राज्यों से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को संचालित करने और विकासोन्मुखी कार्य करने में भी सहूलियत होगी. हमारे कई राज्य इतने विशाल हैं कि उसमें कुछेक देश समा सकते हैं! महाराष्ट्र और राजस्थान इतना बड़ा है कि इसमें यूरोप के दसियों देश समा जाएं.
राज्यों के बंटवारे से सुराज और सुशासन की दिशा में भी आगे बढ़ने में मदद मिलेगी. लेकिन राजनीतिक दल सुराज और सुशासन को केंद्र में रखकर सोच ही नहीं पा रहे. और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से राज्य को बनाने या राज्य का बंटवारा करने में जुटे हैं. लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जा सकता कि नये राज्यों की मांग केवल राजनीतिक स्तर पर उठी है. विदर्भ, कौशल, तेलंगाना, बुंदेलखण्ड, पूर्वाञ्चल, हरित प्रदेश, मिथिलाआंचल आदि की मांगों के उठने के पीछे जनता के कुछ अनत्तरित प्रश्न भी हैं. यकीनन कई राज्यों में ऐसे संकुल हैं जिसे आर्थिक असंतुलन की स्थिति झेलनी पड़ी. इसी तरह कुछ राज्यों में एक विशेष भाषा के वर्चस्व के आगे आंचलिक भाषा घुटने टेक चुकी है. लेकिन असली कारण जनता और प्रशासन के बीच बढ़ती खाई है.
यह भी गौर करने वाली बात है कि सिर्फ राज्यों को बांटने भर से समस्या हल नहीं होगी क्योंकि बंटे हुए राज्य में भी अगर शासन प्रणाली ठीक से नहीं चलायी गयी तो एक हिस्सा फिर अलग करने की मांग करने लगेगा. हर राज्य में पंचायती व्यवस्था को मजबूती देनी चाहिए ताकि छोटी से छोटी इकाई को सत्ता में भागीदारी मिल सके. हमें प्रशासनिक ढांचे में जरूरी सुधार और क्षेत्रीय आर्थिक असंतुलनों को घटाने के प्रयास करने होंगे. आर्थिक प्रशासन इस तरह तय करना होग कि वह केंद्रमुखी न हो. हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जनता को उसी की भाषा में शिक्षा और प्रशासन का अधिकार मिले.
भाषाई आधार पर विलगाव का एक बड़ा कारण यही समस्या है. एक बेहतर अहम सुधार यह होना चाहिए कि देश में जितने भी संसदीय क्षेत्र हैं उतने ही जिले हों और एक जिले में एक संसदीय क्षेत्र ही आये. अभी ऐसा न होने से न केवल प्रशासनिक समस्याएं सामने आती हैं बल्कि जनता के विकास कार्य में भी बाधा होती है. यकीनन छोटे राज्य गठित किये जाने चाहिए क्योंकि यह जनता की जरूरत पूरी करने में अधिक सक्षम होते हैं. छोटे राज्यों में नौकरशाहों की फौज को नियंत्रित करने के लिए पंचायतराज काफी मददगार हो सकता है. ”
तो हम कह सकते है कि छोटे राज्यों के गठन से उत्पन्न होने वाली संभावनाएं द्विपक्षीय है और इस बारे में सौ प्रतिशत सत्य कुछ भी नहीं कहा जा सकता जबकि एकमात्र हल जो है वो है सुशासन जो जिसका ध्येय हो सम्पूर्ण भारतवर्ष को इसकी भाषायी और जातीय विभिन्नताओं के बाद भी एक सुदृढ़ इकाई के तौर पर इसे जोड़के रखना ताकि बाहरी शक्तियां हमसे अपना हित न साधने पाये और हम विकास के पथ पर अग्रणी हो पूरी दुनिया का नेतृत्व करें ।